जैसे बीज से पेड़ होता है, पेड़ से फूल और फल होता है, ऐसे ही मूल या जड़ तो रस है, उसी में नाटक के सारे भावों का ताना-बाना बनता है। जब कविता को पेड़ के रूपक
से समझाया गया तो कहा गया कि काव्य-वृक्ष का बीज या मूल रस है, पर अंत में भी रस है। जब मनुष्य के जीवन और संसार को पेड़ के रूपक के द्वारा बताया गया तो कहा गया
कि इस पेड़ की जड़ें ऊपर ऊपर हैं, शाखाएँ नीचे नीचे।
जिन श्रीकृष्ण ने पेड़ का यह रूपक बताया, उन्होंने कभी बचपन में अपने गाँव में पेड़ों के बेतहाशा काटे जाने के विरोध में तीखी और साफ-साफ बातें भी कही थीं।
उन्होंने कहा - `काष्ठ के लालच में पेड़ इतने काटे जा रहे हैं कि हमारी ग्वालों की बस्ती शहर बनती जा रही है - घोषोयं नगरायते! पहले यहाँ आकाश को छूने वाले घने
पेड़ों के कितने घने-घने जंगल होते थे।' कृष्ण बातें कह कर ही नहीं रह गए, उन्होंने मंत्रयज्ञ करने वाले ब्राह्मणों और सीतायज्ञ (हल के फाल से बनने वाली रेखा की
पूजा का यज्ञ) करने वाले किसानों के समकक्ष ग्वालों को गिरियज्ञ करने की सलाह इस तर्क के द्वारा दे डाली कि पहाड़ ही तो कभी सिंह कभी व्याघ्र का रूप धर कर उन
लोगों से हमारे वनों और वृक्षों की रक्षा करते हैं, जो पेड़ काट-काट कर हम ग्वालों की दुनिया उजाड़ रहे हैं।
(दीप भव, लोकमत समाचार, 2012)